Monday, October 1, 2018

उच्च-शिक्षा का संकट: समाधान क्या? छात्र-संघ की राजनीति या मुद्दों पर आधारित छात्र-आन्दोलन!

आइसा और सीवाईएसएस के नापाक गठबंधन के प्रकाश में डूसू चुनाव का विश्लेषण

--- मो0 बिलाल और दिनेश कुमार( सदस्य क्रांतिकारी युवा संगठन-KYS)
 

दिल्ली विश्वविद्यालय में 2018-19 के छात्र-संघ चुनाव संपन्न हो चुके हैं| चुनाव परिणामों की घोषणा ने डूसू (दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ) में परिवर्तन होने की तमाम हवाई अटकलों पर रोक लगा दी है| डूसू के चुनावों में इस बार भी एबीवीपी, एनएसयूआई का ही बोलबाला रहा| एबीवीपी ने जहाँ तीन पदों पर जीत पाई, वहीं एनएसयूआई सिर्फ़ सचिव पद पर जीतने में कामयाब रहा| एबीवीपी के विजयी उम्मीदवारों- फर्जी डिग्रीधारी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, व संयुक्त सचिव- द्वारा गाड़ियों के काफिले, विश्वविद्यालय के बाहरी लोगों के जमावड़े, ढोल-बाजे के साथ उसी अंदाज़ में विजय पर्व मनाया जिस अंदाज़ में चुनाव-प्रचार किया गया था| चुनाव में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के छात्र संगठन तरह-तरह के हथकंडों से डूसू चुनाव जीतने की तैयारी में लगे हुए थे| डूसू के चुनावी समर में आरएसएस-भाजपा, कांग्रेस के छात्र संगठन क्रमश: एबीवीपी, एनएसयूआई के अतिरिक्त तथाकथित वाम छात्र संगठन एआईएसएफ, एसएफआई, आइसा भी जोर-आजमाइश में लगे हुए थे| साथ ही, इस वर्ष आम आदमी पार्टी का छात्र संगठन सीवाईएसएस भी 2 साल के बाद एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरा| इस बार के डूसू चुनाव में जिस चीज़ को खास समझा जा रहा था वह यह कि इस बार आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन सीवाईएसएस ने सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के छात्र संगठन आइसा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने का फैसला किया था, जिसे साफ़-सुथरी छात्र राजनीति और एबीवीपी-एनएसयूआई के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा था| गठबंधन की सफलता के लिए आंदोलनरत छात्र संगठनों व छात्र मंचों से समर्थन दिए जाने का आह्वान भी किया गया था| लेकिन आइसा-सीवाईएसएस पर एबीवीपी-एनएसयूआई की जीत उनके विकल्प बनने के स्वप्न को डकार गयी|

आइसा-सीवाईएसएस के इस गठबंधन को एक प्राकृतिक गठबंधन बताया जा रहा था| गठबंधन के बाद से ही आइसा-सीवाईएसएस के नेता व उम्मीदवार इस गठबंधन की आवश्यकता के सम्बन्ध में तरह-तरह के दावे पेश कर रहे थे| उनका कहना था कि यह गठबंधन डीयू में चली आ रही धन-बाहुबल व गुंडागर्दी की राजनीति से छात्रों को छुटकारा दिलाएगा और छात्रों को एक वास्तविक विकल्प देगा| साथ ही, यह भी कहा जा रहा था कि आज के फासीवादी माहौल में तामम फासीवादी तकतों के खिलाफ यह समय की माँग है कि आइसा-सीवाईएसएस मिलकर चुनाव में शिरकत करे और छात्रों के समक्ष एक सकारात्मक राजनीति की मिसाल पेश करे| इस गठबंधन की महत्ता और औचित्य को लेकर प्रगतिशील एवं जनवादी छात्रों व शिक्षकों में एक संशय की स्थिति बनी हुई थी| कुछ छात्र व शिक्षक इस गठबंधन को मात्र चुनावी हथकंडा समझ रहे थे, तो कुछ छात्र और शिक्षक इसे फासीवाद के विरोध में स्वागत योग्य पहल मानते हुए, गठबंधन के प्रति काफी विश्वस्त थे और अपेक्षाओं से भरे हुए थे| यह वाम समर्थक शिक्षक इस गठबंधन की आलोचना करने वाले अन्य लोगो को भी समय की जरुरत के अनुसार ‘प्रैक्टिकल’ होने की नसीहत दे रहे थे|



आइसा और सीवाईएसएस के गठबंधन की पृष्ठभूमि


गठबंधन की न्यायसंगतता और उसकी तार्किकता को लेकर छात्रों और शिक्षकों में जो संशय है उसे ख़त्म करने और गठबंधन की प्रासंगिकता को समझने के लिए हमें आइसा व सीवाईएसएस के इतिहास, उनकी राजनीतिक यात्रा व विचारधारा की पड़ताल करनी होगी| आइसा और सीवाईएसएस पहले भी डूसू चुनाव लड़ते रहे हैं| वर्ष 2015 में सीवाईएसएस ने डूसू का अपना पहला चुनाव लड़ा था, जिसमे उसे अलग-अलग पदों पर अधिकतम 10 से 12 हज़ार वोट मिले थे और चुनाव में वह एनएसयूआई, एबीवीपी के बाद तीसरे पायदान पर रहा था| वर्ष 2015 के बाद सीवाईएसएस ने अगले दो वर्षों में डूसू चुनाव नहीं लड़ा| इसी तरह आइसा भी लम्बे समय से हर वर्ष डूसू चुनाव में उतरता रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वह डूसू में 7 से 10 हज़ार तक वोट हासिल कर पाने में सफल रहा है| लेकिन 10 या12 हजार से ज्यादा वोट हासिल न कर पाने की स्थिति में दोनों ही संगठन कभी भी डूसू में किसी ओहदे पर नहीं पहुँच सके हैं| इसलिए दोनों संगठन एक-दूसरे के सहयोग से अपने वोट-प्रतिशत को बढ़ाकर जीत के आँकड़े को छूने की कोशिश में थे| डूसू में कोई पद जीत न पाने के लिए दोनों संगठन एबीवीपी-एनएसयूआई की धन-बाहुबल की राजनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे थे| इन संगठनों के अनुसार धन-बाहुबल के कारण ही एबीवीपी-एनएसयूआई ज्यादा वोट पाने और जीत जाने में कामयाब होते हैं| यह और बात है कि सीवाईएसएस ने भी वर्ष 2015 में दिल्ली में आप सरकार बनने के बाद डूसू चुनाव में खूब धन-बाहुबल का इस्तेमाल कर चुनाव जीतने की भरसक कोशिश की थी|

डूसू चुनाव में पिछले काफी समय से एबीवीपी-एनएसयूआई का वर्चस्व रहा है| इन संगठनों से ‘टिकट’ पाने के लिए उम्मीदवार अपने साथ हमेशा लड़कों का जमावड़ा रखते हैं| टिकट पाने की होड़ में यह दावेदार विश्वविद्यालय में शक्ति प्रदर्शन द्वारा अपने साथ छात्रों के समर्थन होने, चुनाव लड़ने तथा चुनाव जीतने के दम-ख़म होने की दावेदारी पेश करते हैं और जाति, धर्म, क्षेत्र का प्रभाव दिखाकर छात्रों को रिझाने की कोशिश करते हैं| ज्यादातर मौकों पर कई छात्र एक ही छात्र संगठन के टिकट पर या उसके द्वारा चुनाव में खड़े किये जाने की दावेदारी पेश करते हैं| इन दावेदारों में सभी को चुनाव में खड़ा किया जाना तो संभव नहीं होता इसलिए कई दावेदारों को इन प्रमुख संगठनों से टिकट नहीं मिलता| एक ही छात्र संगठन से टिकट पाने की होड़ में यह दावेदार अक्सर आपस में ही एक-दूसरे पर हमला कर देते है| इसका उदाहरण हमें इस साल 5 सितम्बर को देशबंधु महाविद्यालय में देखने को मिला जब एबीवीपी के दो गुट आपस में लाठियों और छुरी के साथ भीड़ गए| माहौल ऐसा बन गया है कि इन दावेदारों द्वारा बाहुबल का प्रयोग दूसरों को डराने धमकाने के लिए तो होता ही है, खुद पर हमला हो जाने से बचने के लिए भी होता है| लगुआ-भागुआओं को साथ रखने की स्थिति कई बार दावेदारों के लिए भी उलफत का सबब बनती है, क्योंकि दावेदारों के साथ आने वाले बाहुबली विश्वविद्यालय में विभिन्न असामाजिक गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं| वह छात्राओं को छेड़ते हैं और छात्रों को धमकाते हैं, छात्र-छात्राओं को परेशान किये जाने से इन्हें अपनी छवि ख़राब होने और चुनाव में हार जाने का डर रहता है| इन उम्मीदवारों के साथ आने वाले ज्यादातर लड़के विश्वविद्यालय के बाहर के होते हैं, जिनमें अधिकांश का विश्वविद्यालय में एडमिशन नहीं होता| अलग-अलग बहानों जैसे पैसा देकर, या विश्वविद्यालय में छात्राओं को दिखाने वगैरह बहानों द्वारा चुनावी दावेदार उन्हें प्रचार के लिए विश्वविद्यालय लेकर आते हैं| अपने धन-बाहुबल द्वारा प्रचार कर यह उम्मीदवार अपनी जीत सुनिश्चित करने की हर संभव कोशिश करते हैं|

अब आइसा-सीवाईएसएस के गठबंधन के पीछे इसी गुंडागर्दी व धनबल की राजनीति को खत्म करने और बदलाव लाने की तमन्ना को एक महत्वपूर्ण कारण बताया जा रहा है| मगर ध्यान देने की बात है कि जिन छात्रों के बीच यह बदलाव लाने की बातें की जा रही है वह स्वयं पहले से ही इस धन-बाहुबल की चुनावी राजनीति से उकताये रहते है| लेकिन इसके बाद भी साल-दर-साल यह छात्र इन्हीं धन-बाहुबल वाले उम्मीदवारों को अपना वोट देकर जीताते भी रहे हैं| यानी डीयू के छात्रों का एक बड़ा समूह इस धन-बाहुबल की राजनीति को भली-भाँति समझता भी है और इसे बुरा भी मानता है, बावजूद इसके भी वह अन्य विकल्पों को चुनने की कोशिश नहीं करता और इन धनी-बाहुबलियों को ही अपने प्रतिनिधि के रूप में चुन लेता है| यह वही छात्र-समूह है जो भारत के आम चुनावों में गरीबों द्वारा सूझ-बुझ से अच्छे नेता के चुनाव न करने और लालच में आकर वोट देने को बड़ी ही घृणित दृष्टि देखता है| परन्तु, वह खुद छात्र-संघ के चुनाव में इसी तरह के अभ्यास को दोहराता है| आइसा-सीवाईएसएस कथित तौर पर इस राजनीति को बदलने के लिए डूसू की सत्ता में आना चाहता हैं| परन्तु, यह प्रश्न अत्यंत ज़रूरी हो जाता है कि जब यह छात्र पहले से ही इस तरह की राजनीति को हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं फिर भी प्रत्येक वर्ष ऐसी ओछी राजनीति करने वालो को ही अपना प्रतिनिधित्व सौंप देते हैं, तो क्या वाकई इन चेतनशील, अतिजागरुक लेकिन ज्ञानपापी छात्रों में राजनीतिक-चेतना उत्पन्न किया जाना संभव है? अब किन तरीकों से इन छात्रों के छात्र-राजनीति से उदासीन रवैये को बदलकर, इनके भीतर एक आन्दोलनकारी रवैया उत्पन्न किया जाएगा| या यह कहा जाए कि छात्रों के इस समूह द्वारा अब आइसा के बदलाव लाने की बात को महत्त्व ही नहीं दिया जा रहा है क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय में अधिकांश ऐसे अभिजात वर्गीय छात्र दाखिला पाते हैं जिनका व्यक्तिगत और विश्वविद्यालयी जीवन बिना किन्ही विकट अवरोधों के मनोरंजनपूर्ण और सहजतापूर्ण गतिमान हैं| यही कारण है कि ऐसे छात्रों को अन्य छात्रों के हितों में कोई दिलचस्पी ही नहीं होती है| उनका लक्ष्य सरकारी सुविधाओं को इस्तेमाल करके अपने भविष्य और जीवन को सुखद बनाना होता है| इस सन्दर्भ में यह भी जान लेना ज़रूरी हो जाता है कि आखिर वह छात्रों का कौन-सा समूह होगा जो शिक्षा की स्थिति में बदलाव लाने की जरुरत को समझेगा| छात्रों का यह समूह उन छात्रों का है जो उच्च शिक्षा से वंचित या शिक्षा जगत में हाशिए पर हैं और उच्च शिक्षा में बदलाव की राजनीति का मतलब वंचित छात्रों की उच्च शिक्षा के लिए आन्दोलन है|


उच्च शिक्षा की विकट स्थिति: बहुसंख्यक छात्र शिक्षा से वंचित


दु:खद है कि भारत में आज 12वीं पास करने वाले छात्रों का कुल 25.2% हिस्सा ही उच्च शिक्षा तक पहुँचने में कामयाब हो पा रहा है| उच्च शिक्षा की श्रेणीगत व्यवस्था के कारण सबसे ‘अच्छे’ विश्वविद्यालयों (केन्द्रीय विश्वविद्यालय) में ज्यादातर उच्च वर्ग के छात्र पहुँच रहे हैं| इन शिखर संस्थानों को केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता मिलती है और यहाँ प्रवेश पाना अत्यंत प्रतिस्पर्धापूर्ण होता है| मात्रात्मक रूप से अधिक सरकारी अनुदान की उपलब्धता के कारण इन संस्थानों का बुनियादी ढाँचा क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों और छोटे-मोटे निजी शिक्षण संस्थानों की अपेक्षा बेहतर सुविधाओं और उत्कृष्ट शैक्षणिक माहौल से लैस होता है| परिणामस्वरूप यह उन छात्रों का पसंदीदा लक्ष्य बन जाते हैं जो समाज के सुविधा-संपन्न हिस्से से आते हैं|

हाल के वर्षों में 12वीं से उत्तीर्ण ज्यादातर छात्र पत्राचार शिक्षा की ओर धकेले जा रहे हैं| अनौपचारिक पद्धति की इस नई श्रेणी में छात्रों की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है और इन छात्रों की संख्या रेगुलर से औपचारिक शिक्षा में नामांकित छात्रों की तुलना में लगभग 10 गुणा तक अधिक होती है| भारतीय उच्च शिक्षा में नामांकन प्रतिशत में बढ़ोत्तरी का प्रमुख कारण पत्राचार शिक्षा-पद्धति है, जिसने उच्च-शिक्षा में मौजूद छात्रों के कुल नामांकन अनुपात को बढाया है| यह पद्धति समाज के वंचित और हाशिये पर जी रहे उन बहुसंख्यक युवाओं को शिक्षा उपलब्ध कराती है जो रेगुलर की नियमित शिक्षा-व्यवस्था में दाखिला लेने से वंचित हो जाते हैं| पत्राचार माध्यमों में जो शिक्षा दी जाती है वह अत्यंत लापरवाही-भरी और भेदभावपूर्ण होती है, शिक्षक पढ़ाने को लेकर उदासीन रहते हैं और कक्षाएँ भी अत्यंत कम होती है |

अगर दिल्ली विश्वविद्यालय को देखें तो उसके स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग में प्रत्येक वर्ष नामांकन कराने वाले छात्रों की संख्या रेगुलर की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक होती है| बहुसंख्यक छात्र समाज के गरीब, वंचित और हाशिये के समुदायों से आते हैं| इन छात्रों का बहुसंख्यक हिस्सा दिल्ली सरकार के उन सरकारी स्कूलों से पढ़कर आता हैं जिनकी हालत हाल के दशकों में और भी बदतर हुई है| इससे यह छात्र डीयू की दाखिला प्रतिस्पर्धा में अपेक्षित रूप से पिछड़ जाते हैं| घटिया सरकारी स्कूली शिक्षा से पढ़ने को मजबूर होने के बावजूद भी इन युवाओं को सरकारी अनुदान से पोषित डीयू के महाविद्यालयों में दाखिले के दौरान कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती और उन्हें सीट हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है| इनके प्रतिद्वंद्वी वह अभिजात छात्र होते हैं जो दिल्ली और देश के अन्य क्षेत्रों के महंगे निजी स्कूलों से पढ़कर आते हैं| यह प्रक्रिया या शैक्षिक वर्गभेद प्रत्येक वर्ष और भी तीव्र रूप से पुनरावृत्त होता है| ऐसा ही प्रचलन अन्य प्रमुख शिक्षण संस्थानों/विश्वविद्यालयों के पत्राचार विभाग में भी दिखलाई पड़ता है|


आइसा का मध्यम-वर्गीय चरित्र: चुनावी राजनीति और वैचारिक शून्यता





महानगरों में लगातार ऐसे वंचित छात्रों के बढ़ते समूह को मुख्यधारा तक लाने के लिए आइसा द्वारा कोई भी आन्दोलन नहीं किया गया है| उसकी जद्दोजहद सिर्फ रेगुलर पद्धति द्वारा शिक्षा ग्रहण कर रहे अभिजात छात्रों के लिए अतिरिक्त विशेषाधिकार हासिल करने तक ही सीमित रही हैं| आइसा का चुनावी अभियान जिन छात्रों के लिए बदलाव लाने की बात कह रहा था, वह छात्र अग्रतः अत्यधिक गुणवत्तापूर्ण शैक्षणिक माहौल और उत्तम सुविधाओं से लैस परिस्थितियों में ज्ञानार्जन कर रहे हैं जिसके कारण उनकी जमीनी छात्र-संघर्षों में कोई रूचि नहीं है| ऐसे में वंचित वर्ग के युवाओं के लिए कोई आन्दोलन न करना और उन्हें उच्च शिक्षा तक पहुँचाने के लिए कोई संघर्ष न करना साबित करता है कि आइसा सिर्फ सुविधा-सम्पन्न मध्यम एवं अभिजात वर्ग के छात्रों के लिए ही चिंतित है| आइसा उनके विशेषाधिकारों को बचाने और उनके ही वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है| ऐसे में उसके बदलाव करने के सारे दावे झूठे सिद्ध होते हैं, क्योंकि वंचित वर्ग के छात्र जिनके लिए बदलाव सबसे अधिक ज़रूरी हैं और जो छात्र यह बदलाव लाने में सबसे अधिक सक्षम हैं, वह उसकी राजनीति से पूरी तरह गायब हैं|

कथित तौर पर वाम कहे जाने वाले आइसा की वैचारिक अंधता संयुक्त रूप से सीवाईएसएस के साथ डीयू छात्रों के पक्ष में जारी घोषणा-पत्र में भी दिखती है| मध्यम-वर्ग के शरीफजादों को रिझाने के लिए इस घोषणा-पत्र का सबसे पहला बिंदु गुंडागर्दी के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति लाना था| यह गौरतलब है कि घोषणा-पत्र में यह बिंदु होने के बावजूद सीवाईएसएस के प्रत्याशी पूरे चुनाव प्रचार के दौरान इसकी धज्जियां उड़ाते नज़र आये| सीवाईएसएस से जॉइंट सेक्रेटरी के प्रत्याशी जो कथित तौर पर साफ़-सुथरी राजनीति की बात करते हैं, वो खुद ही अपनी गाड़ियों के काफिले और अपने गुंडों के साथ डीयू के विभिन्न कॉलेज परिसरों में प्रचार करते हुए दिखे| सीवाईएसएस के प्रत्याशी के चुनाव प्रचार का ढर्रा एनएसयूआई-एबीवीपी के प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार के तरीकों से कहीं भी भिन्न नहीं दिखाई दिया| सीवाईएसएस के प्रत्याशी के चुनाव प्रचार को देखने से लगा कि सीवाईएसएस के नाम के साथ जैसे कोई एनएसयूआई-एबीवीपी का प्रत्याशी प्रचार कर रहा हो| सीवाईएसएस-आइसा के गठबंधन के बाद से ही उनके साझा पोस्टरों से न केवल विश्वविध्यालय की वॉल ऑफ डेमोक्रेसी अटी पड़ी थी, बल्कि इनके प्रत्याशियों के बैलट नंबर वाले पोस्टर गाड़ियों पर, विश्वविद्यालय के छात्र-बहुल रिहायशी इलाकों में, मेट्रो स्टेशन व दूर-दराज के इलाकों में भी आसानी से दिखाई पड़ रहे थे| सीवाईएसएस और आइसा के इस गठबंधन द्वारा चुनाव जीतने के लिए चुनाव प्रचार पर बेतहाशा पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था| ऐसे में आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन के विचारों और चरित्र के बारे में तो पता चलता ही है, पर इससे कहीं ज्यादा आइसा के विचारों और सांगठनिक चरित्र की पोल भी खुलती है| यहाँ साफ़ दिखाई पड़ता है कि चुनाव में जीत हासिल करने के लिए आइसा किस तरह अपने घोषणा-पत्र में कही गयी बातों और वायदों को भी ताक पर रखने को तत्पर था|

ज्ञात हो कि इस गठबंधन के पीछे एक और तर्क दिया गया कि आम आदमी पार्टी ने पिछले 3 सालों में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में बड़े गुणात्मक सुधार किये है और चूँकि केजरीवाल सरकार शिक्षा में जरुरी सुधारों को लेकर प्रतिबद्ध है और निरंतर इस दिशा में काम कर रही है इस कारण आइसा उसकी छात्र इकाई सीवाईएसएस के साथ चुनाव लड़ेगा और जीतने पर दिल्ली विश्वविद्याल में शिक्षा-सुधारों के लिए काम करेगा| किन्तु ज़मीनी पड़ताल की जाए तो आप सरकार का यह दावा सिर्फ एक झूठा प्रचार मात्र नज़र आएगा| दिल्ली के सरकारी स्कूलों की स्थिति पिछले 3 सालों के दौरान लगातार बदतर हुई है| अभी भी ज्यादातर स्कूलों में छात्रों के अनुपात में शिक्षकों की संख्या में भारी कमी है और जो शिक्षक हैं, उनमे भी ज्यादातर अस्थायी व ठेका शिक्षक हैं| टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 2 अगस्त, 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 65% स्कूलों में प्रिंसिपल नहीं है| इसके अलावा, अभी हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायलय के सामने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की इमारतों की जर्जर स्थिति, कक्षाओं में भारी भीड़ होने, ज्यादातर शिक्षकों के अस्थायी होने, मिड डे मील के अधपका होने, साफ पानी और शौचालय न होने जैसी समस्याओं से संबंधित एक रिपोर्ट पेश की गयी| इस पर गंभीरता से सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च-न्यायालय ने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की खराब स्थिति का पता लगाने के लिए जाँच का आदेश दिया है|

अभी हाल ही में जामिया हमदर्द के मेडिकल संस्थान द्वारा किये गये अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि दिल्ली के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में शौचालय घटिया एवं अस्वास्थ्यकर स्थिति में है| अध्ययन में शामिल किये गए कई स्कूलों में पाया गया कि छात्राओं के लिए अलग शौचालय का कोई प्रबंध ही नहीं है और जिन कुछ स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था है तो वह पर्याप्त नहीं है| अध्ययन में पाया गया कि स्कूलों में शौचालयों की स्थिति बेहद ही घटिया होने के कारण मासिक धर्म के दिनों में ज्यादातर छात्राओं को मजबूरी में स्कूल छोड़ना पड़ता है| अतः यह स्पष्ट है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के बड़े-बड़े दावे करने वाली आप सरकार छात्र-छात्राओं को शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी ठीक से मुहैया नहीं करा रही है|

आप सरकार द्वारा शिक्षा में अपनी कथित परिवर्तनकारी पहल का प्रचार करने के लिए कुछ गिने-चुने स्कूलों को बेहतर सुविधाएँ मुहैया करवाकर उन्हें उत्कृष्ट विद्यालय बनाने की बात कही जा रही है| परन्तु, ध्यान देने योग्य बात है कि इस तरह के कुछ स्कूल पहले से ही दिल्ली में मौजूद थे| ऐसे ही कुछ और स्कूलों को बेहतर करके आप सरकार यह साबित करने पर तुली है कि उसने शिक्षा व्यवस्था में काफी सुधार किये हैं| दिखावे के मकसद से बेहतर किये गये यह स्कूल सिर्फ मुठ्ठी-भर छात्रों को ही पढ़ाएंगे| इसके विपरीत ज्यादातर स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था खराब रहने से बहुसंख्यक छात्र गैर-बराबरी झेलते रहने को मजबूर रहेंगे| आप सरकार सिर्फ़ कुछ स्कूलों को आगे बढ़ाकर अपना राजनीतिक प्रचार कर रही है, जबकि दिल्ली की अत्यंत गैर-बराबरीपूर्ण और खराब शिक्षा को सुधारने के लिए कोई ढाँचागत बदलाव नहीं किया जा रहा है|

यही नहीं, दिल्ली के सरकारी स्कूलों द्वारा रिजल्ट को बेहतर बनाने के लिए ऐसे छात्रों को जो किन्ही कारणों से पढाई में कमजोर हैं को आठवीं कक्षा के बाद या चौदह वर्ष की आयु पार कर चुकने के बाद, दाखिला नहीं दिया जा रहा है जिसके कारण अनेक छात्रों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है| इसी तरह दसवीं के बाद सभी उत्तीर्ण छात्रों को दाखिला देने के बजाय स्कूलों में दाखिले के लिए कट-ऑफ लगाईं जा रही है| इसी साल मई माह में दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा यह नीति लाई गयी कि राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान से दसवीं कक्षा में 55% से कम अंक लेकर पास होने वाले छात्रों को दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाखिला नहीं दिया जायेगा| इस आम छात्र-विरोधी नीति से उन छात्रों की बड़ी संख्या जो दिल्ली के सरकारी स्कूलों में औपचारिक माध्यम से शिक्षा लेना चाहती हैं, वह या तो पढ़ाई छोड़ने को विवश होगी या छोटे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने को मजबूर होगी| जिससे साफ़ पता चलता है कि आम आदमी पार्टी की छात्र-विरोधी शिक्षा नीति शिक्षा में निजीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा देने वाली है| सभी तक अच्छी, सस्ती और समान शिक्षा की पहुँच सम्भव हो यह दिल्ली सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है|

सीवाईएसएस और आइसा ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में सस्ती शिक्षा के लिए संघर्ष करने का भी दावा किया था| लेकिन दिल्ली सरकार के द्वारा संचालित अम्बेडकर विश्वविद्यालय में पढ़ रहे छात्रों से बेतहाशा ऊँची फीस वसूली जा रही है| कुछ पाठ्यक्रमों में तो यहाँ निजी विश्वविद्यालय की तरह सालाना एक से सवा लाख रूपये तक की फ़ीस ली जा रही है| छात्रों की इस समस्या को आइसा नजरअंदाज करता रहा है| ध्यान देने योग्य बात है कि जिस सीवाईएसएस के साथ आइसा चुनावी प्रचार में लगा हुआ था, उसने भी कभी इस विषय में कोई कदम नहीं उठाया| बल्कि, चुनाव न होने के कारण आइसा अम्बेडकर विश्वविद्यालय से ही नदारद रहता है| परन्तु, चुनाव में गठबंधन बनाने पर आइसा खुद को ही नहीं बल्कि सीवाईएसएस को भी आन्दोलनरत संगठन घोषित करने पर तुला हुआ था|

खुद को वाम कहकर प्रचारित करने वाले आइसा ने आम आदमी पार्टी की असमान शिक्षा नीति का भी विरोध कभी नहीं किया है| ज्ञात हो कि दिल्ली के ज्यादातर छात्र जो वंचित घरों से आते हैं वह दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहाँ की जर्जर स्थिति का हम उल्लेख कर चुके हैं| वहीं दूसरी ओर अभिजात वर्ग के छात्र बड़े-बड़े प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा ले रहे हैं| इस दोहरी शिक्षा नीति से उत्पन्न गैर-बराबरी पर आइसा चुप रहता है| यहाँ पर यह जानना जरूरी है कि आइसा के ज्यादातर नेतागण खुद बड़े-बड़े स्कूलों से पढ़कर आते हैं और इस कारण उन्हें सम्पन्न मध्यम-वर्गीय छात्रों के मुद्दे ही ठीक लगते हैं| ज़ाहिर सी बात है कि इस कारण आइसा का चरित्र भी बदलकर मध्यम-वर्गीय परोपकारवादी हो गया है| आम आदमी पार्टी ने सरकार बनाने से पहले अपने चुनावी घोषणा-पत्र में वादा किया था कि वह चुनाव जीतने के बाद दिल्ली के छात्रों के लिए 20 नए कॉलेज बनवाएगी| कॉलेज खुलने से वंचित छात्रों को उच्च शिक्षा तक पहुँचने का मौका मिलता| लेकिन आइसा ने आम आदमी पार्टी की इस वादा-खिलाफी और धोखेबाजी के विरोध में कभी कोई आलोचना तक नहीं की| इसकी जगह महज़ दिखावे के लिए उसके द्वारा जारी घोषणा-पत्र में सीट बढ़ाने की माँग शामिल है| इन वादों के इतर भी आइसा ने कभी वंचित समूहों के छात्रों जो समाज का बहुसंख्यक हिस्सा हैं, उन्हें उच्च शिक्षा तक पहुँचाने के लिए कोई भी सार्थक कदम नहीं उठाये हैं|

सीवाईएसएस और आइसा के संयुक्त घोषणा-पत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय के रेगुलर कॉलेजों में पढ़ रहे ज्यादातर अमीर वर्ग के छात्रों के विशेषाधिकारों को बढ़ाने की बात की गयी थी और इसी के तहत छात्रों को ए.सी. बस-पास दिए जाने की बात रखी गयी थी| गौरतलब है कि दिल्ली के बहुसंख्यक छात्र जो पिछड़े वर्गों से आते हैं, उन्हें रेगुलर कालेजों में पर्याप्त सीट न होने के कारण एडमिशन नहीं मिलता और उन्हें कॉरेस्पोंडेंस माध्यम में पढ़ने को मजबूर किया जाता हैं| इन छात्रों को रेगुलर छात्रों की तरह साधारण आल रूट बस-पास भी मुहैया नहीं है, जबकि आर्थिक-सामजिक रूप से पिछड़े इन छात्रों को ऐसी बुनियादी सुविधाओं की ज्यादा ज़रुरत होती है| रेगुलर छात्रों से ज्यादा संख्या में होने के बावजूद इन छात्रों की मांगों खासकर बस-पास को आइसा ने अपने घोषणा-पत्र में जगह नहीं दी| यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि क्रांतिकारी युवा संगठन (केवाईएस) द्वारा इन छात्रों द्वारा आन्दोलन करने और मुख्यमंत्री केजरीवाल से मुलाकात करने के बावजूद उनकी इस बुनियादी मांग को आप सरकार ने नहीं माना| वंचित छात्रों की मांगों को न उठाकर, आइसा सिर्फ अभिजात वर्ग के छात्रों के लिए और भी ज्यादा सुविधाएँ मांग कर किसी भी तरह डूसू में आना चाहता था| इसके लिए आइसा यह भी नज़रंदाज़ करता रहा कि इन विशेषाधिकारों का खर्च किसको वहन करना पड़ेगा| वंचित वर्ग जिसके छात्रों को डीयू में एडमिशन तक नहीं मिलता, को ही इन अमीर छात्रों के विशेषाधिकारों को पूर्ण करने के लिए टैक्स के रूप में पैसा देना पड़ेगा|

संयुक्त घोषणा-पत्र में देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले छात्रों के लिए हॉस्टल सुविधा देने और विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए रेंट कण्ट्रोल लागू करवाने की बात कही गयी थी| घोषणा-पत्र में हॉस्टल सुविधा को अधिक वरीयता देकर ज्यादा कॉलेज खोलने की मांग से ऊपर रखा गया था| इसका सीधा अर्थ है कि बाहर से आने वाले अमीर छात्रों का वोट हासिल करने के खातिर, उच्च शिक्षा से वंचित छात्रों के लिए नए कॉलेज खोलने की मांग को महत्वहीन समझा गया है| यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि हॉस्टल की सुविधा उन छात्रों को ही चाहिए होती है जो दिल्ली के बाहर से डीयू में पढ़ने आते हैं| दिल्ली के बाहर से वही छात्र पढ़ाई करने आते हैं, जो अपेक्षाकृत आर्थिक-रूप से सक्षम हैं और दिल्ली में प्रवास व पढाई का खर्च वहन कर सकते हैं| अब, इन्ही छात्रों के लिए ही हॉस्टल की माँग करना वंचित छात्रों के अधिकारों को पूर्ण करने के खिलाफ है क्योंकि यह सुविधा सरकार द्वारा एकत्रित कर (टैक्स) द्वारा मुहैया कराई जाएगी| राज्य या सरकार द्वारा एकत्रित कर कामगार वर्ग के श्रम पर आधारित होता है। आबादी का बड़ा हिस्सा मज़दूर वर्ग का है और मजदूर ही देश की सम्पदा और हमारे उपभोग की सभी वस्तुएँ निर्मित करते हैं| यहाँ पर यह बात समझना आवश्यक है कि जो कर पूँजीपति या अभिजात वर्ग सरकार को देते हैं, वो पूर्णतः मजदूरी करने वालों की मेहनत पर आधारित होता है| यह इसलिए क्योंकि उन्हें उनकी मेहनत का सिर्फ़ एक छोटा ही हिस्सा अपने वेतन के रूप में मिलता है, जबकि एक बड़ा हिस्सा मुनाफे के तौर पर पूँजीपति द्वारा खुद रख लिया जाता है या मध्यम-वर्ग को तनख्वाह के रूप में मिलता है| इस कारण सरकार द्वारा जो भी कर इकठ्ठा किया जाता है, वह मजदूरों या समाज का निर्माण करने वालों के शोषण पर आधारित होता है| इसी कर का एक भाग सरकार सार्वजनिक विश्वविद्यालयों, अस्पतालों एवं अन्य जन-सुविधाओं में लगाती है| इसलिए यह मेहनतकशों की ही कड़ी मेहनत या यों कहें कि अतिशोषण का फल है कि सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थानों के साथ ही सरकारी विश्वविद्यालयों की सुविधा समाज के एक सम्पन्न हिस्से को उपलब्ध हो पाती हैं| परन्तु, समाज निर्माण करने वाले मेहनतकश परिवारों के युवाओं को उनकी ही मेहनत से निर्मित इन सरकारी विश्वविद्यालयों में दाखिला नहीं मिल पाता है, क्योंकि सरकार द्वारा अधिक कॉलेजों का निर्माण नहीं किया जा रहा है| ऐसे में उनको अभिजात वर्ग से छात्रों द्वारा प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और वह इसमें पिछड़कर उच्च शिक्षा से बाहर हो जाते हैं या उसके हाशिये पर, घटिया पढ़ाई लेने को मजबूर होते हैं| आज जब वंचित परिवारों के युवाओं को शैक्षणिक अवसर देने के लिए नए व ज्यादा कॉलेज खोलने की आवश्यकता है, तब हॉस्टल बनाने की बात करना अभिजात छात्रों के विशेषाधिकारों को बढ़ाने के बराबर है|

आइसा द्वारा जारी घोषणा-पत्र में छात्रों के लिए रेंट कण्ट्रोल को लागू करवाने की भी बात कही गयी थी| स्पष्ट तौर पर, आइसा जैसे तथाकथित वाम छात्र संगठन ने रेंट कंट्रोल जैसे मुद्दों को सिर्फ विश्वविद्यालय के आस-पास के इलाकों में रहने वाले छात्रों के लिए उठाया| असल में, यह मुद्दा दिल्ली-भर में रेंट कंट्रोल का होना चाहिए क्योंकि ज्यादातर गरीब परिवारों से आने वाले छात्र दिल्ली के मजदूर इलाकों में रहते हैं, जहाँ उनके परिवारों को किराये के लिए अपनी आय की एक बड़ी रकम चुकानी पड़ती है| यानी, छात्र ही केवल किराए पर रहने वाली आबादी नहीं हैं| आप सरकार पिछले 3 साल से सत्ता में है, परन्तु रेंट कण्ट्रोल की दिशा में उसने कभी कोई कदम नहीं उठाया| अब, दिल्ली के बाहर के छात्रों का वोट पाने के मकसद से और डूसू चुनाव में जीत हासिल करने के लालच में, झूठे और लोकलुभावन प्रचार की भिन्न-भिन्न तरकीबों द्वारा छात्रों को गुमराह करने का काम किया गया और यह दावा किया गया कि अगर गठबंधन सत्ता में आया तो छात्रों के लिए रेंट कण्ट्रोल को लागू करवाएगा| परंतु, यह सिर्फ कोरे लोकलुभावनवाद के अलावा कुछ नहीं है, क्योंकि दिल्ली की राजनीति में मालिकों, मकान-मालिकों का दबदबा रहता है और दिल्ली की सरकारें किरायेदारों को लूटने वाले इन्हीं मालिकों, मकान-मालिकों के पक्ष में खड़ी दिखती है| और यही कारण है कि कोई भी सरकार इन मकान-मालिकों को खिन्न करने से बचने के लिए कभी-भी रेंट कण्ट्रोल कानून को लागू नहीं करवाती है। यानी दिल्ली में रेंट कण्ट्रोल कानून का छात्र-चुनावों में चुनावी जुमलों से क्रियान्वयन होना संभव नहीं है| छात्रों को तब तक मकान-मालिकों की मनमानी से मुक्ति नहीं मिल पाएगी जब तक कि दिल्ली की बड़ी मजदूर आबादी जो किरायेदार है, उनके लिए भी रेंट कण्ट्रोल की बात नहीं की जाएगी|


चुनावी गठबंधन का असल कारण क्या? फासीवाद या मौकापरस्ती


आइसा-सीवाईएसएस के नेताओं द्वारा गठबन्धन की आधिकारिक घोषणा करते हुए गठबंधन को उच्च-शिक्षा के साथ-साथ आज के सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों के लिहाज से भी आवश्यक बताया गया| प्रेस कांफ्रेंस में आप और आइसा के प्रतिनिधियों ने देश में बढ़ रहे फासीवादी माहौल और इस परिदृश्य में शिक्षा पर हो रहे हमले का उल्लेख किया| गठबंधन को बार-बार एबीवीपी को हराने और देश में फासीवाद को रोकने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण बताया जा रहा था| साथ ही, आइसा-सीवाईएसएस द्वारा कहा जा रहा था कि यह गठबंधन एबीवीपी जैसे संगठनों पर अपनी जीत से समाज में एक सन्देश देने का काम करेगा और आने वाले लोकसभा चुनावों में फासीवादी बीजेपी को हराने का काम करेगा| यह सच्चाई है कि आज देश में एक विकट माहौल उभरा है| केंद्र में सत्तासीन भाजपा सरकार तमाम तरीकों द्वारा जन-आन्दोलनों को कुचलने का काम कर रही है| भाजपा ने सत्ता का गलत इस्तेमाल करते हुए जातिवादी, साम्प्रदायिक, क्षेत्रवादी और असुरक्षा का माहौल तैयार किया है| परन्तु, यह सोचने वाला विषय है कि बीजेपी की फासीवादी सोच का विस्तार किन लोगों के बीच हो रहा है और वह कौन लोग हैं जो इसके फासीवादी चरित्र की गिरफ्त में आकर इनके विभाजनकारी एजेंडे को मजबूती देने का काम करते है| इन प्रश्नों पर गहराई से विचार करने पर नज़र आता है कि बीजेपी की यह फासीवादी सोच देश के वंचित एवं उच्च शिक्षा तक न पहुँच पाने वाले युवाओं के बीच मजबूत जड़े जमा रही है| जिन्हें आरएसएस के प्रचारक या बीजेपी के नेता अपनी भ्रामक व अतार्किक बातों से गुमराह करने में आसानी से सफल होते हैं| ऐसे में फासीवाद की झूठी चिंता व्यक्त कर सिर्फ वोट बटोरने की कोशिश करने और बहुसंख्यक वंचित छात्रों की मांगों को लेकर कोई आन्दोलन न खड़ा करने से वह फासीवादी ताकतों के लिए फासीवाद स्थापित करने का औज़ार बनते हैं| इसलिए आइसा के प्रत्याशियों और नेताओं द्वारा इस बात पर जोर देना कि यह गठबंधन आज के फासीवादी माहौल के खिलाफ प्रकट हुई सहज अभिव्यक्ति है, झूठी और चुनाव जीतने की शातिराना लोकलुभावन कोशिश है|

इसके अतिरिक्त, अगर गठबंधन फासीवादी ताकतों के खिलाफ किया गया था तो आइसा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में बीजेपी-आरएसएस के फासीवाद के खिलाफ लड़ रहे अन्य वाम संगठनों (एआईएसएफ, एसएफआई) जो डीयू में इस वर्ष भी पूर्व वर्ष की भाँति अपने वाम गठबन्धन से चुनाव में एक साथ शिरकत कर रहे थे, के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश क्यों नहीं की| लेकिन जब कभी बीजेपी, आरएसएस, एबीवीपी के द्वारा देश के लोगों, संस्थानों पर कोई फासीवादी हमला होता है तो आइसा अन्य वाम संगठनों के साथ मिलकर उसका प्रतिरोध करता है लेकिन चुनाव के समय वह फासीवाद के खिलाफ बने इस वाम गठबंधन को नकार देता है| आइसा जहाँ डीयू में अन्य वाम छात्र संगठनों से गठबंधन नहीं करता वही जेएनयू में हार के डर से वाम संगठनों के साथ मिलकर ‘लेफ्ट यूनिटी’ के नारे पर चुनाव लड़ता है और गठबंधन की जरुरत को एबीवीपी और फासीवाद को रोकने के तौर पर बताता है| आइसा का यह अवसरवाद और बुर्जुआ पार्टी के छात्र-संगठन के साथ कथित प्राकृतिक गठबंधन करना उसके विशुद्ध चुनाव जीतने की कसमसाहट को दिखाता है|

पूरे चुनाव के दौरान बदलाव की राजनीति की बात करते हुए आइसा-सीवाईएसएस अपना चुनावी बिगुल फूँक रहे थे| इस प्रक्रिया में आइसा अपने वैचारिक दिवालियेपन का सबूत देते हुए अपनी कथित वाम विचारधारा से पूरी तरह आँख फेरे हुए था| अपने को प्रगतिशील बताकर छात्रों से वोट मांगने का ढकोसला करने वाला आइसा यह भी नहीं देख रहा था कि एक तरह के धन-बाहुबल को वो दूसरे से हस्तांतरित करने का प्रयास कर रहा था| इस चुनाव के दौरान सीवाईएसएस के उम्मीदवार द्वारा खुले तौर पर धन और बाहुबल का प्रयोग कर छात्रों को रिझाने की कोशिश की जा रही थी| चौंकाने वाली बात आइसा द्वारा इसे सिर्फ नज़रंदाज़ किया जाना ही नहीं था बल्कि खुद इस उम्मीदवार के प्रचार में एड़ी-चोटी का जोर लगाना था| यह उम्मीदवार भी बिना किसी ग्लानी भाव के पुराने ढर्रे जिसका आइसा विरोध करता रहा है, उसका प्रयोग कर रहा था|

यह गौर करने की बात है कि सीवाईएसएस अपनी पार्टी की तरह ही एक अवसरवादी संगठन है| इस संगठन में शामिल होने वाले बहुत से लोग उन संगठनों (एबीवीपी, एनएसयूआई) से आये हैं, जिनकी धन-बाहुबल, गुंडागर्दी की राजनीति का सीवाईएसएस चुनाव में विरोध करता दिख रहा था| इसकी मिसाल हमें 2015 के डूसू चुनावों में देखने को मिलती है| सीवाईएसएस ने 2015 में छात्र-संघ चुनाव जीतने के लिए एबीवीपी के एक ऐसे नेता को अपने संगठन में शामिल किया था, जिसने छात्र राजनीति में गुंडागर्दी को बढ़ाने का काम किया है| सीवाईएसएस ने एबीवीपी से आए इस नेता को न केवल सीवाईएसएस में एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी बल्कि यह प्रचारित भी किया कि इस बार के चुनावों में एबीवीपी हारने वाला है क्योंकि कथित छात्र-नेता उसका साथ छोड़कर सीवाईएसएस के विचार और राजनीति के साथ जुड़ रहे हैं| ज़ाहिर है, सीवाईएसएस के उम्मीदवारों ने चुनावों में उन हथकंडों को अपनाने से भी गुरेज़ नहीं किया, जिसका इस्तेमाल आम तौर पर एबीवीपी-एनएसयूआई करते रहे हैं| सीवाईएसएस के उम्मीदवार जातिवाद और क्षेत्रवाद का प्रयोग कर छात्रों को लुभाने की कोशिश कर रहे थे| सनी तंवर, जो संयुक्त सचिव पद के सीवाईएसएस से प्रत्याशी थे वह गुज्जर महासभा का समर्थन मांगकर सभी गुज्जर समुदाय के छात्रों से वोट लेने की जद्दोजहद में थे| उसी प्रकार चन्द्रमणि देव, जो सीवाईएसएस से सचिव पद के प्रत्याशी थे वह अपने क्षेत्र बिहार के नाम पर वोट इकठ्ठा करने की कवायद में जुटे थे| जिस प्रगतिशील राजनीति का डंका बजाकर एक साफ़-सुथरा कैंपस बनाने की बात की जाती रही, उसी की आड़ में धन-बाहुबल का प्रयोग कर लेने से भी गुरेज़ नहीं किया गया| साफ़ है, इससे ‘चुनाव में सब चलता है’ की विचारधारा ही प्रबल होगी और इससे किसी भी छात्र की चेतना में प्रगतिशीलता नहीं आएगी| उलटे आइसा के ही कार्यकर्ताओं में विचारधारा की शून्यता प्रबल होती है, जो समय-समय पर दिखती भी रही है|


लिबरेशन का वैचारिक खोखलापन: अवसरवादी इतिहास की पुनरावृत्ति 


यह विचारधारात्मक दिवालियापन आइसा और उसकी राजनीतिक पार्टी सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) की पूरी राजनीति में भी दिखता रहा है| लगता है कि आइसा को भी उसी बीमारी ने जकड़ रखा है, जिससे उसकी पार्टी ग्रसित है| असम के कारबी आंगलोंग से सांसद जयंत रोंगपी जो कि लिबरेशन के ही संगठन स्वायत्त राज्य मांग कमेटी (ए.एस.डी.सी) के नेता थे, उन्होंने अल्पसंख्यक नरसिम्हा राव सरकार को गिरने से बचाया था| इसी नरसिम्हा राव सरकार ने ढांचागत सुधार प्रोग्राम (structural adjustment programme) के बहाने नव-उदारवादी नीतियों को भारतीयों पर थोपा था| लिबरेशन की भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘प्रतिबद्धता’ इस तथ्य से साबित हो जाती है कि जयंत रोंगपी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों (जिनको 5 करोड़ पार्टी व्यक्ति रिश्वत दी गयी थी) के साथ नरसिम्हा राव सरकार को बचाने की संधि की थी|

इसी तरह लिबरेशन ने बिहार में नितीश कुमार की समता पार्टी और उत्तर प्रदेश में जन मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन किया है और कई मौकों पर अन्य बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों को भी लुभाने की कोशिश की है, जैसे जदयू, राजद, और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी| 1993 में लिबरेशन के छह में से चार सांसद लिबरेशन छोड़ लालू प्रसाद यादव की राजद में चले गये थे- लिबरेशन के नेतृत्व में समाहित अवसरवाद और स्व-प्रगतिवाद का यह एक अर्थपूर्ण उदाहरण है| आश्चर्यजनक है कि जो लिबरेशन सीपीएम-सीपीआई की बंगाल में जन-विरोधी नीतियों का विरोध करता है, वही बिहार में उनके साथ गठबंधन करता है| जहाँ सीपीएम-सीपीआई मजबूत हैं, वहाँ लिबरेशन अपना समर्थन उन्हें दे देता है, ताकि उसे भी सीपीएम-सीपीआई से समान समर्थन मिल सके| अतः लिबरेशन अपने समर्थकों का (विचार-हीन) वोट बैंक के रूप में (दुर)उपयोग करता है, या एक ऐसी वस्तु मानता है जिसका किसी भी राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है| समर्थकों से किये हुए सारे वादे और बंगाल में सीपीएम-सीपीआई पर मढ़े गये सारे इल्जामों को बिहार चुनावों में अपनी सुविधानुसार भुला दिया जाता है|


फिर से, हमें लिबरेशन और उसकी छात्र इकाई आइसा के प्रोग्राम अंतर-विरोधों से भरे दिखाई देते हैं| दिल्ली में आइसा को नस्लवाद के खिलाफ नारेबाजी करते हुए देखा जा सकता है, पर बहुत कम लोगों को यह बात मालूम होगी कि जनवरी 2004 में जब एन.एस.सी.एन (आई.एम) के सांप्रदायिक हमले के पीड़ित कूकी समुदाय के लोग बचने के लिए कारबी आंगलोंग आ रहे थे, उस समय लिबरेशन ने उनको राज्य में घुसने से रोकने के लिए कठोर नियम बनाने को कहा था| आइसा को कुछ समूहों में क्रांतिकारी समझा जाता है, परन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है| अक्सर लिबरेशन के काडरों/सदस्यों ने विचारधारा के प्रति बेहद ही क्षीण प्रतिबद्धता का उदाहरण दिया है| राजा राम, जो लिबरेशन के ओबरा निर्वाचन क्षेत्र, औरंगाबाद से पूर्व विधायक थे, उन्होंने चुनावी जीत की चाह में रणवीर सेना से तथाकथित रूप से समर्थन माँगा था और यह समर्थन उनको प्राप्त भी हुआ था| उस समय, जब गरीब किसानों और आदिवासियों की ज़मीनें कॉर्पोरेट घरानो द्वारा हड़पी जा रही थी, लिबरेशन के एक पूर्व विधायक ने उन सभी पुलिसवालों को शहीद का दर्जा दिए जाने की बात कही थी, जो उन आदिवासियों के खिलाफ लड़ाई (ऑपरेशन ग्रीन हंट) में मारे गये जो अपने मूल आर्थिक अधिकारों के लिए लालची पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ रहे थे|

बेशक, जब कोई विचारधारात्मक लगाव और आन्दोलन के प्रति कोई गहरी प्रतिबद्धता न हो जिससे कार्यकर्ताओं और आन्दोलन के अग्रणियों का निर्माण हो सके, तब समय-समय पर इलेक्शन में शामिल होने की रस्म-अदायगी को ही आन्दोलन कह दिया जाता है| इसी प्रवृत्ति(विचारधारात्मक भटकाव) के तहत आइसा के कार्यकर्त्ता गलत कारणों से सुर्ख़ियों में आते हैं| आइसा के कई भूत-पूर्व सक्रिय कार्यकर्ता आज बुर्जुआ पार्टियों में शामिल हैं| जिनमे आम आदमी पार्टी के ही नेता गोपाल राय शामिल हैं जो सीवाईएसएस-आइसा के गठबंधन की घोषणा भी करते हैं| उत्तर प्रदेश और बिहार में कई कार्यकर्त्ता समाजवादी पार्टी एवं राष्ट्रीय जनता दल में शामिल हो चुके हैं| इसके अतिरिक्त, जेएनयू के पूर्व छात्र-संघ अध्यक्ष आइसा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, संदीप सिंह अभी राहुल गाँधी के भाषण लेखक हैं और आइसा का यह कहते हुए प्रचार करते हैं कि अगर कांग्रेस में ऊँचा पद चाहिए तो आइसा में रहकर राजनीति सीखनी चाहिए|


विकल्प क्या? छात्र-संघ की राजनीति या वंचित छात्रों का आन्दोलन


अब चुनाव में हारने के बाद, फिर से इस हार का ठीकरा किन्ही कारणों पर फोड़ने की कोशिश हो रही है| जबकि ज़रुरत है कि डूसू को ही आंदोलन का सबसे महत्त्वपूर्ण ज़रिया मान लेने की राजनीति पर विचार करने की| यहाँ पर यह सवाल बनता है कि अगर छात्र-अधिकारों के लिए आंदोलन ही मकसद है तो डूसू को जीतने के लिए ही हर-संभव प्रयास क्यों? क्या चुनाव जीत लेने मात्र से ही फासीवाद की हार सुनिश्चित की जा सकती है? अगर यह मान भी लिया जाए कि इस चुनाव में आइसा विजयी होता, तो भी क्या वो फासीवादी एबीवीपी के वजूद और उसके विभाजनकारी और प्रति-क्रांतिकारी एजेंडे को खत्म करने में सक्षम होता? नहीं, क्योंकि उसके प्रभाव को खत्म करने के लिए ज़रुरत है आंदोलन करने की, जो डूसू के बिना ही संभव है| एबीवीपी के हार जाने के बावजूद उसका मौजूदा परिस्थितियों में समाज में एक आधार है| इस सामाजिक आधार को वाम आन्दोलन को अपने तरफ लेकर आने की ज़रुरत है| आंदोलन द्वारा ही उन उच्च शिक्षा से वंचित एवं हाशिये पर रह रहे छात्रों-युवाओं के अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता है, जो डूसू में नहीं आते परन्तु फासीवाद के खिलाफ वाम आंदोलन का मज़बूत आधार बन सकते हैं| आइसा द्वारा लगातार यह प्रचार किया जाता रहा कि इस बार आंदोलनकारी डूसू को चुना जाए| मगर, यह विदित है कि आइसा द्वारा बहुसंख्यक छात्रों के लिए कोई भी आंदोलन किया नहीं गया और यह न ही उसकी चिंता का विषय है| चुनाव जीतने को आंदोलन का केंद्र मान लेने की प्रवृत्ति ज़मीनी आंदोलन के महत्त्व को कम करने का काम करती है| इसका सबसे बड़ा उदाहरण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र-संघ है, जहाँ वाम संगठनों द्वारा लगातार चुनाव जीतते रहने के बावजूद ज्यादातर संघर्ष जेएनयू केंद्रित ही रहे हैं, और जिनका बहुसंख्यक वंचित छात्रों को मुख्यधारा तक लाने से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है| ऐसे में छात्र-संघ सिर्फ़ एक छोटे हिस्से के छात्रों को ही अपने आंदोलन का केंद्र बनाते रहे हैं|

इस चुनावी राजनीति से बहुसंख्यक छात्रों की स्थिति में सुधार सम्भव नहीं है| सरकार और प्रशासन हमेशा छात्र-संघ के पदाधिकारियों और छात्र-संघ के मंच को ही छात्रों की मांग उठाने का एकमात्र जायज माध्यम मानता रहा है| इससे जनता/छात्रों के असली मुद्दों पर बहस पीछे छूट जाती है और प्रशासन को संघर्षशील छात्र समूहों के संघर्षों को दबाने में भी आसानी मिलती है| साथ ही, छात्र-संघ सिर्फ एक ऊपर से थोपी गई एक ऐसी संस्था है जिसका प्रयोग छात्र-आन्दोलन को बढ़ाने की बजाय छात्रों/युवाओं के गुस्से को दबाने के लिए किया जाता है| आज की परिस्थितियों में वाम आन्दोलन प्रतिक्रियात्मक राजनीति तक ही सीमित रह गया है, जिसमे सरकार द्वारा किये जा रहे प्रहारों के विरोध के इतर मुद्दों की राजनीति सशक्त नहीं की जा रही है| अब ज़रूरी हो गया है कि हम इस प्रतिक्रियात्मक राजनीति से खुद को विलग्न कर बहुसंख्यक वंचित छात्रों के मुद्दों पर आधारित आन्दोलनों को सशक्त करें| इसके लिए ज़रुरत है कि इस गैर-लोकतांत्रिक संस्था(डूसू) से स्वायत्त आन्दोलन खड़े किये जाने की| मुद्दों की राजनीति से आन्दोलन का सामाजिक आधार भी मजबूत होता है, क्योंकि यह असलियत में प्रतिनिधित्व वाली राजनीति से अलग एक वैकल्पिक राजनीति तैयार करता है जहाँ प्रतिनिधि द्वारा अपने मुद्दे उठाने से ज्यादा आंदोलनरत लोग खुद अपने मुद्दे उठाते है| इस तौर पर, कोई आन्दोलन न करना आइसा का वैचारिक ढीलापन तो उजागर करता ही है, उससे कहीं ज्यादा डूसू में चुनाव जीतने का महत्व बताना, छात्रों का इस गैर-जनवादी संस्था के ऊपर विश्वास जमाए रखने और प्रतिनिधित्ववाद को बनाये रखने में सहायक होता है|

अब आइसा-सीवाईएसएस के इस गठबंधन के बारे में कोई संशय या दुविधा होने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती| आइसा-सीवाईएसएस का यह (अ)पवित्र गठबंधन विशुद्ध रूप से चुनाव जीतने की महज मौकापरस्ती भर है, जिसका बहुसंख्यक छात्रों के हित से कभी-भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है| डूसू के रूप को बदले बिना केवल उसकी अंतर्वस्तु को बदल देने की चाह ने आइसा की राजनीतिक अंतर्वस्तु और रूप को भी बदल कर रख दिया है| यही कारण है कि जो आइसा गुंडागर्दी और धन-बाहुबल के खिलाफ राजनीति करने का दावा करता था, उसने डूसू की सत्ता पाने की चाह में आम आदमी का मुखौटा लगाने वाले दूसरे किस्म के धनवानों, बाहुबलियों और गुंडों से ही गलबहियां कर ली| ऐसे में आइसा जैसे नकली वाम संगठनों को बेनकाब किया जाना आवश्यक हो जाता है|

हम देख रहे है कि पिछले कुछ सालों में विभिन्न सरकारों द्वारा उच्च-शिक्षा पर हमला बढ़ा है और सार्वजनिक वित्त-पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों को धीरे-धीरे ख़त्म करने के प्रयास जारी हैं| ऐसे में वंचित छात्रों के आंदोलनों से दूरी बनाकर केवल चुनावी राजनीति को ही विकल्प बताना कोरी धोखाधड़ी है| हमें समझना होगा कि विकल्प केवल एक है- वंचित तबकों और मजदूर वर्ग से आने वाले छात्रों का आन्दोलन| आज समाज के निचले तबके की जरूरत एक समान शिक्षा व्यवस्था लागू कर, एक समान अवसर देने की है| आवश्यकता है कि छात्र-संघ की चुनावी राजनीति के मोह-पाश में फँसे बिना, विश्वविद्यालयों के आंदोलनों को वंचित छात्रों के उन व्यापक छात्र-आन्दोलनों से जोड़ा जाए जो उच्च-शिक्षा के अधिकार के लिए लगातार संघर्षरत हैं| साथ ही बहुसंख्यक वंचित छात्रों तक उच्च शिक्षा का अधिकार पपहुँचे इसके लिए नए आन्दोलन स्थापित करने की आवश्यकता है| इन आंदोलनों का केंद्रीय उद्देश्य विश्वविद्यालयों के स्तर पर अपनाई जा रही दोहरी नीति (औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा) का विरोध, वंचित छात्रों-युवाओं को सार्वजनिक वित्त-पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में प्राथमिकता देने, नए कॉलेज खोलने और मौजूदा कॉलेजों में सीट बढ़ाने का हो| मेहनतकश और मध्यम-वर्ग के वंचित तबके के छात्रों के इस नये आन्दोलन से ही सही मायने में बदलाव लाया जा सकता है, और न्याय एवं बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण किया जा सकता है|

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