Thursday, July 14, 2022

श्रीलंकाई जनता के जनविरोधी सरकार के खिलाफ संघर्ष के समर्थन में कथन

जनविरोधी सरकार के खिलाफ श्रीलंकाई जनता का संघर्ष जिंदाबाद!
दमन, शोषण और साम्राज्यवाद के खिलाफ हमारी एकजुटता जिंदाबाद!!

समुंदर से घिरा हुआ हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका में लंबे समय से आर्थिक संकट पनप रहा था। आखिर, जनता के सब्र का बांध टूट गया, और श्रीलंका की सड़कों पर व्यापक जन-सैलाब उमड़ पड़ा है, जिसने शासकीय व्यवस्था की वैधता पर ही सवालिया चिन्ह लगा दिया है। बीते दशक से ज्यादा समय से पनप रहे व्यापक आर्थिक संकट के चलते श्रीलंका में इस अभूतपूर्व उथल-पुथल की स्थिति बनी है। अनुमानों के अनुसार, देश की सरकार पूरी तरीके से कर्ज में डूबकर प्रस्त हो चुकी है। हर जगह जरूरी वस्तुओं की भारी कमी है। अर्थव्यवस्था को चलाए रखने के लिए देश को खाद्यान्न, रसोई गैस, अन्य खाद्य पदार्थों, पेट्रोलियम आदि प्रमुख वस्तुओं के आयात करने की जरूरत है, जिसके लिए बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है। अब तक, श्रीलंका बढ़ते हुए भारी बाहरी कर्ज; पूंजीपतियों और मध्यम वर्गों को दी जाने वाली बड़ी रियायतों के चलते पैदा हुआ भारी राजकोषीय घाटा; पूंजी बाजार से भारी उधार; और बुरी तरह से प्रभावित पर्यटन क्षेत्र तथा अन्य कारणों के चलते विदेशी मुद्रा आय में तेजी से गिरावट जैसी कई आर्थिक समस्याओं का सामना करता आ रहा है। इसके अलावा, किसानों को कोई प्रतिकारी सहायता दिए बिना विदेशी मुद्रा को बचाने के लिए रसायनिक उर्वरकों के उपयोग में कटौती करने के सरकार के फैसले के चलते किसानों की आय और खाद्यान्न का उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।

इस संकट के गहराने से देश के बड़े शहरों, खासकर राजधानी और सबसे बड़े शहर, कोलंबो की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों का सैलाब देखने को मिल रहा है और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। प्रदर्शनकारियों ने गाले फेस ग्रीन पार्क में एक स्थायी विरोध शिविर स्थापित किया है, जो इन दिनों गोटा-गो-गामा के नाम से जाना जा रहा है। अलग-अलग जगह देश-भर में इस तरह के विरोध शिविरों का निर्माण हो चुका है। ज्ञात हो कि यह पार्क राष्ट्रपति सचिवालय के ठीक सामने है, और यह शिविर सत्ताधारियों के खिलाफ जनता के ताकतवर आंदोलन का प्रतीक है। प्रदर्शनकारियों के साथ सैकड़ों ट्रेड यूनियनों से मजदूर प्रतिनिधि साथ आए हैं और बीते चार दशकों में पहली बार इतनी बड़ी आम हड़ताल देखने को मिली है। यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि सत्ता के लिए चल रहे राजनीतिक दलों के म्यूजिकल चेयर को जनता नकारती है, और इसकी जगह एक ठोस निर्णायक बदलाव चाहती है। दरअसल, जनता के विद्रोही रवैये को देखते हुए, आंदोलन को नजरअंदाज करने और फिर बलपूर्वक दमन करने के अपने शुरुआती रुख से सरकार को लगातार पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आवासों पर कब्जा कर लिया गया है, और राष्ट्रपति को देश से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

जनता की बदहाली के बीच राष्ट्रपति की विलासिता को देखने के लिए प्रदर्शनकारी आम जनता को राष्ट्रपति निवास आने का आमंत्रण दे रहे हैं। राष्ट्रपति निवास का गोर्डन बगीचा परिवारों के लिए एक पिकनिक स्थल बन गया है। अब जनता के कब्जे वाले राष्ट्रपति निवास को देखने आ रही भारी संख्या को संभालने के लिए प्रदर्शनकारियों ने स्वयंसेवकों को संगठित किया है। यह आम जनता द्वारा सत्ताधारियों के उन गतिविधियों को सफलतापूर्वक संचालित करने की क्षमता को दर्शाता है। अमूमन इस तरह के कार्यों को विशिष्ट राजकीय संस्था ही ही कर सकती हैं, यह तर्क देकर शासकीय ताक़त अपने अस्तित्व को जायज ठहराती है। आज नागरिक व्यवस्था बनाए रखने का काम प्रदर्शनकारी कर रहे हैं, और राज्य स्पष्ट रूप से अनुशासन-विहीन दिख रहा है।   

विडंबना यह है कि बीते कुछ दशकों से आर्थिक चमत्कार कहा जाने वाला इस देश की अर्थव्यवस्था अब पूरी तरह से बदहाल हो चुकी है। इस विडंबना का मूल कारण राजनीतिक व्यवस्था का जनविरोधी स्वरूप है, जिसने देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के हितों को कुचलते का कार्य किया है। ज्ञात हो कि अंधराष्ट्रवाद, बहुसंख्यवाद और अल्पसंख्यक-विरोधी भावनाओं की लहर पर सवार हो कर कई दशकों से तमाम राजनीतिक दल सत्ता पर कब्जा करते रहे हैं। सत्ताधारी दल मूलतः पूंजीवादी शक्तियों और जमींदारों के गुट हैं। सत्ता पर काबिज होने के लिए, 1970 के दशक में सत्तारूढ़ दलों द्वारा सिंहल-प्रभुत्ववादी राजनीति को सामने लाया गया। इसके बाद जनविरोधी आर्थिक नीतियों को लागू किया गया। उदाहरण के लिए, 1977 में सरकार ने बड़े नाटकीय तरीके से मूल्य नियंत्रण, टैरिफ और अन्य विनियमन क़ानूनों को धीरे-धीरे निष्प्रभावी कर दिया और अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी को निवेश के लिए आमंत्रित करना शुरू किया। नतीजतन, विदेशी कर्ज बड़े पैमाने पर बढ़ता गया। इन नीतियों के खिलाफ उठे जन-आंदोलनों को कुचलना को एक चलन बना दिया गया। ट्रेड यूनियनों पर अंकुश लगाया गया, और मेहनतकश जनता को सक्रिय रूप से जातीय, भाषाई और धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया। घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को टैक्स में व्यापक छूट दी गई, और टैरिफ-मुक्त आयात इस उभरते आर्थिक परिदृश्य की विशेषता थी। इससे विदेशी कर्ज पर निर्भरता बढ़ गई, जिससे मौजूदा आर्थिक संकट की नींव पड़ी।

2000 के दशक से सुगबुगाते इस संकट के बीच सरकारें सिंहाला प्रभुत्ववाद को बढ़ावा देने के साथ-साथ दमनकारी नीतियाँ अपनाती रही हैं। सत्ता पर काबिज, मौजूदा राजपक्षे परिवार, ने 2000 के दशक के शुरुआती दौर से सत्ता को हथियाया, और तमिल मुक्ति आंदोलन को पूरी तरह से कुचलने का काम किया। इससे तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की लोकप्रियता बढ़ी, और मेहनतकश जनता की एकजुटता में कमी आई। वहीं आर्थिक मोर्चे पर विदेशी कर्ज लगातार बढ़ता गया, ऊँचे ब्याज दर लगाए गए और कर्ज-वापसी की अवधि कम हुई। बढ़ते हुए कर्ज के बावजूद, विदेशी और निजी निवेशों को आकर्षित करने के लिए सरकार ने रियायती दरों में पूंजीपतियों को कर्ज देने जैसी अपनी अमीर-हितैषी नीतियों को जारी रखा, जबकि इसी बीच मेहनतकश जनता मूलभूत वस्तुओं की भारी कमी से जूझ रही थी। इसी बीच सेना पर हुआ खर्च भी चौंकाने वाला है। मेहनतकश जनता की परेशानियों के बीच देश के बजट का 12.3% सेना के लिए आवंटित किया गया।

इसीलिए, मौजूदा संकट ने सत्ताधारी अभिजात वर्ग के लिए जन-स्वीकारोक्ति का संकट पैदा कर दिया है। हालिया जन-विरोध सिर्फ चंद लोगों के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हुआ है। लोगों को बाँटने की सत्ताधारी दलों की नीतियाँ पूरी तरह से नाकामयाब हुई हैं, और अब तक प्रतिबंधित जन-ताकतों को नई जान मिली है। रिपोर्ट बताते हैं कि गोटा-गो-गामा में सिंहाला और तमिलों ने साथ मिलकर श्रीलंकाई नववर्ष मनाया। आंदोलन को रोकने के लिए सरकारों द्वारा जनता को डराने की कोशिश की गई, और उन्हें गिरफ्तार करने, मारने या डराने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया गया। परंतु सरकार की दहशत फैलाने वाली साजिशें लगातार नाकाम हो रही हैं, और सरकार की हर हिंसात्मक कार्रवाई को जनता के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है, और लोग राजनेताओं के घरों-ऑफिसों को जलाकर, तथा उन्हें कब्जे में लेकर राजशाही के खिलाफ प्रतिशोध ले रहे हैं। साथ ही, जनता में सांप्रदायिक कलह को भड़काने की राज्य-प्रायोजित अफवाहों को जनता ने नाकाम कर दिया है। राजशाही द्वारा फैलाई जा रही अफवाहों को झूठा साबित करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से प्रदर्शनकारियों ने इंटरनेट पर लाइव-स्ट्रीमिंग कर विभिन्न समुदायों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द को जनता के सामने प्रदर्शित किया। विभिन्न धार्मिक समूहों ने सामूहिक रूप से रमजान मनाया, जिससे मेहनतकश लोगों के बीच एकजुटता दिखाई दी। ज्ञात हो कि श्रीलंका के दक्षिण क्षेत्र में लोग पहली बार गृहयुद्ध में मारे गए तमिलों के लिए शोक मनाने के लिए निकले हैं। सांप्रदायिक फूट डालने की कोशिशों के बीच यह एकजुटता प्रशंसनीय है और मौजूदा आंदोलन की सफलता का मजबूत आधार बनी है।

वर्ष 2010 के बाद से श्रीलंका सरकार के ऋण-बनाम-जीडीपी अनुपात में लगातार बढ़ोतरी हुई है। स्रोत: सेंट्रल बैंक ऑफ श्रीलंका, 2021

            मुख्य रूप से प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की है। परंतु, मेहनतकश जनता के जीवन और जीविका से जुड़े ठोस मुद्दे और इस मौजूदा राजनीतिक संघर्ष की कई महत्वपूर्ण माँगें या तो व्यवस्थित तरीके से उठाए नहीं गए हैं, या फिर उन्हें जानबूझकर मुख्यधारा की चर्चा से बाहर कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में, और खासकर जब व्यवस्था परिवर्तन का संघर्ष चल रहा है, तब लंबे समय से राजनीति में मौजूद तमाम धूर्त नेता जनता की संवेदनाओं का इस्तेमाल कर सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना हैं। सरकार को हटाने की बढ़ती माँगों के बीच उन्होंने कहा कि मौजूदा सरकार नहीं बनी रहनी चाहिए। हालांकि, यह बात ध्यान देने वाली है कि यह वही व्यक्ति था जिसने कार्यकारी और पूर्व प्रधानमंत्रियों को नियुक्त किया था। साथ ही, यह साफ तौर पर दर्शाता है कि सत्तारूढ़ और विपक्षी दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं और दोनों में कोई व्यापक विचारधारात्मक अंतर नहीं है। दोनों ही मौजूदा भ्रष्ट और शोषणकारी व्यवस्था को जारी रखना चाहते हैं, जिसने देश की मेहनतकश जनता के साथ विश्वासघात किया है। किसी भी तरीके से दाँव-पेंच से बनाई गयी सरकार और वर्तमान शासकीय व्यवस्था को बनाए रखने की कारस्तानी खुल्लम-खुल्लम मौजूदा जन-आकांक्षाओं के खिलाफ साबित होगी।

प्रदर्शनकारियों का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आवासों पर कब्जा है, लेकिन प्रभुत्वशाली आर्थिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ताधारी नेताओं ने जनता के खिलाफ षड्यंत्र करना शुरू कर दिया है। पूँजीपतियों के दलाल सत्ताधारी अभिजात किसी भी तरीके से जोड़-तोड़ से मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से संपर्क किया जा रहा है, तथा इस साम्राज्यवादी एजेंसी और संकटग्रस्त देश के बीच एक सौदा होने की संभावना है। आईएमएफ विभिन्न कठोर प्रतिबंधों और शर्तों के साथ सहायता राशि देने के लिए कुख्यात है, जिससे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पूंजीपति तो समृद्ध होते हैं, परंतु जनता गरीबी के दलदल में फंस जाती है।

आज समय की ज़रूरत है मौजूदा सरकार को केवल सत्ता से न केवल बेदखल किया जाए, बल्कि जन-आंदोलन को एक मुकम्मल अंजाम दिया जाए। देश में केवल शासकों और सत्ताधारी दलों के बदलने की जगह ज़रूरत है कि राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत बदलाव लाया जाए। चाहे कार्यकारी राष्ट्रपतीय प्रणाली (executive presidency) हो या सुगम संसदीय प्रणाली हो, दोनों से परे जाने की जरूरत है। इस संबंध में, आज स्पष्ट जनमत दिख रहा है, और जनता के बीच में एक नई सामाजिक चेतना ने जन्म लिया है। राष्ट्रपति को विशेषाधिकर देने वाली कार्यकारी राष्ट्रपतीय प्रणाली को समाप्त करने के लिए जनता ने आह्वान किया है। बीते दशकों में, मेहनतकश जनता के आंदोलनों को कुचलने, जातीय-धार्मिक अल्पसंख्यकों को सताने, अंध-राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और जनता को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करने के लिए इन विशेषाधिकारों का इस्तेमाल किया गया है। हालाँकि, ऐसी शक्तियों और ऐसी व्यवस्था की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। जनता के आंदोलन का एक व्यापक फैलाव है, और जन-आकांक्षाएँ सिर्फ और सिर्फ संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन से ही पूरी हो सकती हैं।

अर्थव्यवस्था केवल कुछ घरेलू और विदेशी पूंजीपतियों के लिए नहीं चलाई जानी चाहिए। श्रीलंका में विशाल चाय बागान और चाय कंपनियां हैं, जिनमें मेहनतकश आबादी का एक बड़ा हिस्सा काम करता है। बड़े औद्योगिक उद्यमों के साथ इनका राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए, और इस क्षेत्र में मौजूद विशाल धन और मुनाफे का उपयोग आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए किया जाना चाहिए। इसके अलावा, सभी आवश्यक वस्तुओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की सहायता से वितरित किया जाना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का प्रबंधन जन-समितियों द्वारा किया जाना चाहिए, और इनमें निजीकरण को खत्म करके, पूरी तरह से सार्वजनिक रूप से वित्त-पोषित किया जाना चाहिए। साथ ही, अन्य सभी छोटी-छोटी आर्थिक गतिविधियों के लिए सहकारी समितियों का गठन और प्रसार किया जाना चाहिए।

श्रीलंका में वर्तमान समय बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोग इतिहास रचने की कगार पर खड़े हैं। अभी जब लोगों के हाथों में इतिहास की कमान है, तो हर पांच साल में केवल एक बार अपनी राय रखने के रस्म-अदायगी को समाप्त किया जाना चाहिए। जनता के इस आंदोलन को राष्ट्रपति के विशेषाधिकार और सरकार बदलने की कवायद के साथ ही पीछे नहीं हटना चाहिए, जिससे संसद के 225 सदस्यों के हाथ में सत्ता फिर से निहित हो जाए। इतिहास उन्हें वर्तमान से परे जाकर एक नई प्रणाली विकसित करने और श्रीलंका में जन-संसदों की स्थापना करके लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी को संस्थागत बनाने का आह्वान कर रहा है। शहरों, कस्बों और गांवों में जन-संसदों को देश के जरूरी मुद्दों पर निर्णय लेने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, उनके हाथों सर्वोच्च शक्ति होनी चाहिए, और संसद देश के मामलों का प्रबंधन करने वाला केवल एक प्रतिनिधि निकाय होना चाहिए। जन-संसदों के पास संसद के अपने प्रतिनिधि को बुलाने और हटाने का अधिकार होना चाहिए। साथ ही, यदि देश के बहुसंख्यक जन-संसद कोई निर्णय लेते हैं, तो उनके पास देश का कानून बनाने या निरस्त करने का अधिकार होना चाहिए।

देश को कमजोर करने के उद्देश्य से आईएमएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कर्जदाता एजेंसियों द्वारा दिये गये कर्ज को रद्द कर दिया जाना चाहिए। यह मालूम होना चाहिए कि आईएमफ देश के आम लोगों को आर्थिक बदहाली से बचाने के लिए नहीं सहायता दे रहा है, बल्कि उसकी पूरी मशक्कत है कि सत्तारूढ़ अभिजातों के हित में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था कायम रहे।

जनता ने अपनी सामूहिक शक्ति का ज़बरदस्त परिचय दिया है, जिसने राजशाही पर काबिज प्रभुत्वशाली आर्थिक वर्गों की पकड़ को कमजोर कर दिया है, और इससे तमाम जन-विरोधी ताकतों को जोर का झटका लगा है। मौजूदा सरकार के गिरने के बाद लोगों को पीछे नहीं हटना चाहिए, बल्कि प्रभावी ढंग से खुद को सशक्त बनाने के तरीकों को विकसित करना चाहिए। यह जरूरी है कि आंदोलन का उद्देश्य केवल सरकार बदलना नहीं, बल्कि इस व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन लाना हो। इस संबंध में, ज्ञात हो कि लोगों ने न केवल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की है, बल्कि मौजूदा विपक्षी दलों के सदस्यों सहित सभी संसद सदस्यों के इस्तीफे की भी मांग की है, जो हर संभव प्रयास कर रहे हैं कि किसी तरह सरकार बनाने के लिए सर्वदलीय गठबंधन बनाएं या व्यवस्था को बचाने के लिए नए राष्ट्रपति का चुनाव करें। महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे सभी प्रस्ताव निरर्थक साबित हो रहे हैं। यहां तक कि संकटों से घिरे प्रधानमंत्री द्वारा विरोध कर रहे युवाओं से संसदीय समितियों में अपने प्रतिनिधियों को नामित करने की  अपील को भी सिरे से खारिज कर दिया गया है। यह श्रीलंका में मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के प्रति जनता में मौजूद व्यापक अविश्वास को दिखाता है। आने वाला भविष्य यह टकटकी लगाए देख रहा है कि इस जनांदोलन में मौजूद जागरूक अगुवा हिस्सा कैसे इस व्यापक उथल-पुथल को एक सफल क्रांतिकारी परिवर्तन में बदलता है।

श्रीलंका में जो हो रहा है, वह दुनिया भर की जनता की आकांक्षाओं का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि मुख्यधारा की मीडिया ने दुनिया भर के विभिन्न देशों में सत्ताधारी आभिजात्यों और प्रभावशाली आर्थिक वर्गों के इशारे पर श्रीलंका के घटनाक्रम को प्रभावी ढंग से प्रसारित करने से रोका है। हालांकि, दुनिया भर की संघर्षरत प्रगतिशील ताकतों की निगाहें श्रीलंका के संघर्ष को देख रही हैं ताकि यह आंकलन किया जा सके कि इस संघर्ष का परिणाम एक फौरी विद्रोह होगा या यह एक ऐतिहासिक क्रांति का रूप लेगा। मौजूदा आंदोलन एक निर्णायक मोड़ पर है, और मौजूदा आंदोलन के अव्यक्त लेकिन उफान-मारते  व्यवस्था-विरोधी रूख को एक ठोस दिशा देना जागरूक ताकतों की ऐतिहासिक भूमिका बनती है। दुनिया भर के देशों में मौजूद आर्थिक संकट और व्यापक अनिश्चितताओं को देखते हुए, आने वाले दिनों में श्रीलंका के इस आंदोलन का भविष्य दुनिया भर के जन-आंदोलनों पर भी असर डालेगा।

आज समय की मांग है कि सभी देशों की मेहनतकश जनता श्रीलंकाई जनता के संघर्षों के साथ खड़े होने और श्रीलंका की जनता की मांगों को समर्थन देने के लिए अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव डाले, ताकि मौजूदा व्यवस्था में आए मुकम्मल बदलाव में जनता की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो सके। श्रीलंका में वर्तमान आंदोलन के प्रति एकजुटता दिखाने का एक तरीका अपने देश में आंदोलनों का निर्माण करना है। इस तरह के आंदोलनों की एकजुट शक्ति ही दुनिया भर में राजनीतिक और आर्थिक प्रणालियों में जनता की शक्ति के संस्थागतीकरण को सुनिश्चित करेगी।

जब-जब जनता एकजुट हुई है, जनता की जीत हुई है!      श्रीलंकाई जन आंदोलन जिंदाबाद! इंकलाब ज़िंदाबाद!

- क्रांतिकारी युवा संगठन (KYS) द्वारा दिनांक 12 जुलाई 2022 को जारी 


2 comments:

  1. मेहनतकश संघर्षशील जनता का संघर्ष जिंदाबाद ✊✊✊

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  2. आपने बहुत अच्छे से श्रीलंका की मौजूदा दशा और
    आगे की दिशा बताया है।✊

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