Sunday, January 27, 2013

दिल्ली विश्वविद्यालय पत्राचार छात्र आन्दोलन के संयोजक पृथ्वी सिंह का भाषण


साथिओं,
       हम दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार माध्यम के छात्र आज अवसर की समानता और सम्मान की लड़ाई लड़ने के लिए इकट्टा हुए है| ये शिक्षण संस्थान जो जनता के उस पैसे से चलते है जो पैसा हमारे माँ बाप ने अपनी हड्डियों को गलाकर सरकारी खजानों में भरा है, हमे इस लायक नही समझते की हम यहाँ पढ़ सकें|
    हम बच्चें हैं उन फैक्ट्री मजदूरों के,उन किसानों के,सरकारी चपड़ासियों, कुलियों और उन ट्रक ड्राइवरों के, जो दिन रात अपने खून को पसीना बना बनाकर बहाते हैं ताकि ये समाज चलता रहे| हम दुनिया के दुखियारों की संताने, जो धरती के किसी भी हिस्से का बहुसंख्यक हिस्सा है पर फिर भी अपने बुनियादी हकों से वंचित| जैसे जैसे हम बड़े होते है, जल्द ही हमे यह समझ में आने लगता है की हम पर उन लोगों की हुकूमत है जो हमसे हर तरह की कुर्बानी चाहते है ताकि उनकी जेबें भरती रहें लेकिन हमे कोई रियायत नहीं मिलती| बहुत थोड़ी उम्र में ही हम दिन भर की कड़ी मेहनत और सम्मान जैसे शब्दों का मतलब समझने लगते हैं|
हमने हमारी उम्र के बच्चों को खेलते देखा जबकि हम उनके घर में काम कर रहे होते थे| हमने उन्हें इतनी-इतनी स्कूल फीस भरते देखा है जितनी हमारे माँ-बाप की साल भर की कमाई नही है| हम उन स्कूलों में गए जिन्हें सरकार ने हमारे कल्याण के लिए चला रखा है लेकिन वहां टीचर नहीं थे| जल्द ही हमें समझ आ गया कि जिंदगी कुछ के लिए मखमली बिस्तर है तो कुछ के लिए काटों की सेज| हमारे समाज के कर्ता-धर्ताओं के यहाँ गोल-मटोल राजकुमार पैदा होते हैं और हम पैदा होते हैं उनकी सेवा करने के लिए| हमें ये समझने में ज्यादा देर नहीं लगती कि ये दुनिया बराबरी पर नहीं चलती, यहाँ सब को एक जैसा मौका नहीं मिलता,लेकिन हम अपनी उम्मीदें नहीं मरने देते क्योंकि हमारे माँ-बाप की उम्मीदें जिन्दा होती हैं| हम देखते हैं की किस तरह वो अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को रोजाना मारतें हैं, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन उनकी औलाद भी ‘पैदायशी’ नेताओं की तरह कामयाब होगी| हालाँकि ये आसान नहीं है,फिर भी ये उम्मीद स्कूल पास करने तक बनी रहती है|
 कॉलेज के गेट के बाहर एक कट-ऑफ होती है जो हमें कॉलेज से बाहर रखने के लिए बनाई जाती है ताकि अमीरों की औलादों को आराम से दाखिला मिल सके| चांदी की चम्मच मुहं में लेकर पैदा होने वाले इन अमीरजादों के मुकाबले हम कहीं भी नहीं ठहरते क्योंकि जितना पैसा हमारे माँ-बाप ने जिन्दगी में नहीं देखा उतना तो ये महंगे प्राइवेट स्कूलों में फीस के रूप में देते हैं| इनके टीचर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं, लैपटॉप से पढाते हैं| घर,क्लासरूम और स्कूल बसों में एयर कंडीशन की सुविधा, होम-टयूशन, बोर्नविटा, होरलिक्स और बादाम और हम स्कूल जाते हैं चाय पीकर और मठ्ठी खाकर| हम जीतने के लिए बने ही नहीं हैं और उनकी जीत पैदा होते ही पक्की हो जाती है| स्वाभाविक है की हम में से कुछ गिने-चुने साथी ही कट-ऑफ की लोहे की दीवार चीर पाते हैं| हालाकिं साल पूरा होते-होते उनमे से भी ज्यादातर कॉलेज छोड़ने पर मजबूर हो जातें हैं| हम में से ज्यादातर नम उदास आँखों और भारी सीने से असहाय और निराश अपने सपनों को कट-ऑफ लिस्ट के सामने टूटते हुए देखते हैं और हमारे माँ-बाप के सपने हमारे आसुओं के रास्ते बह जाते हैं |
 इसके बाद भी हमारे शासक हमें विश्वास दिलातें हैं कि उम्मीद अभी बाकी है,हम अभी भी पत्राचार के माध्यम से इस प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय का हिस्सा बन सकते हैं,पाठ्यक्रम भी समान रहेगा और दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक ही हमें पढाएंगे| हम खुशी से चिल्ला उठते हैं और खुद को विश्वास दिलाते हैं की आशा अभी बाकी है,अगर महाभारत में एकलव्य कर सकता है तो हम क्यों नहीं! लेकिन अफ़सोस, इन सब बातों के बीच हम भूल जातें हैं की एकलव्य के साथ क्या हुआ था और आखिर में वही हश्र हमारा होता है| अगर हम खुशकिस्मत हैं तो हफ्ते में हमारी एक क्लास हो जाती है| जिन्हें विश्वविद्यालय के कॉलेजों में पढाने का मौका नही मिलता वे अध्यापक हमें पढाने आतें हैं( शायद वे भी हमारी तरह मेहनतकश तबके से आतें हैं) | अधिकारी हम पर हुक्म चलाते हैं, हमसे इस तरह से बात करते हैं मानों हम पढने वाले छात्र नहीं बल्कि सड़क पर घूमने वाले आवारा हैं| रविवार के दिन सुरक्षाकर्मी कैंपस में हमारी उपस्थिति पर भड़कते हैं( यही एक दिन होता है जब हमें ज्ञान के इस ‘महान’ और ‘पवित्र’ मंदिर में प्रवेश का एक संकरा और महीन रास्ता मिलता है)| विश्वविद्यालय प्रशासन हमें ये महसूस करने की पुरजोर तरीके से कोशिश करता है कि हम यहाँ का हिस्सा नहीं हैं| हमें यह सन्देश दिया जाता है कि हम यहाँ विश्वविद्यालय प्रशासन की दयादृष्टि की वजह से हैं और ‘जनकल्याण’ के नाम पर जो भी झूठन और टुकड़े हमारी तरफ फेंके जाते हैं उसके लिए हमें उनका एहसानमंद होना चाहिये| हम खून का घूँट पीकर अपनी मुठ्ठियाँ  भींचकर रह जाते हैं क्योंकि इस भीड़ में हम अकेले हैं, वो इंसान जो अपना बचा-खुचा समेटकर जी-जान लगा देता है कुछ हासिल करने के लिए|
लेकिन अब ये बदलने वाला है| हमारे सपने टूट चुके हैं, सम्मान खो चुका है और हमारे माता-पिता का भी मोहभंग हो चुका, अब हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं| आज हम इकठ्ठा हुए हैं अन्याय और ग़ैरबराबरी पर टिकी शिक्षा की इस पाखंडी व्यवस्था को चुनौती देने के लिए और हम इस लड़ाई को हर कीमत पर जीतेंगे| हम डरती के अभागों की संताने, विश्वविद्यालय व्यवस्था की तलछट और ‘फैशनेबल’ और ‘संवेदनशील’ विश्वविद्यालय समुदाय से बहिष्कृत छात्र ये ऐलान करते है कि अब से हम अपनी ताकत के साथ हर वो चीज करेंगे जिससे तुम्हारे मन की शान्ति भंग हो और तुम्हारी शालीन गंभीरता और झूठी संवेदनशीलता का घिनौना नकाब उतर सके| हम इस बात की कतई इज़ाज़त नहीं देंगे कि तुम्हारे ‘पैदायशी’ नेता और ‘जागरूक’ बौद्धिक हम पर दया बरसायें, हमसे सहानुभूति दिखायें या अपनी कृपालु दृष्टि हम पर डाले| हमें ये सब नहीं चाहिए|
 
     
     

2 comments: